एक प्रवासी मजदूर | Ek pravasi Mazdoor.. Hindi emotional poem by Jagmohan Singh
Poem एक प्रवासी मजदूर मैं लंबी दूरी का राही हूं, तुम राह दिखाती जोत प्रिये । मैं कई दिनों का भूखा हूं, तुम भूखों को मारती मौत प्रिये । मैं तो ठहरा मजदूर भला, तुम हमपर बरसते कोड़े हो । मैं भूख के कारण गिर भी पड़ा, तुम पीटने तब भी दौड़े हो । मैं गाँव का सूखा भोजन हूं, तुम शहर के पिज्जा बर्गर हो । मैं मजबूत गरीब की बाजू हूं, तुम ज्ञानी दिमागी जर्जर हो । अभी आधी दूरी पार करी, अब आधी दूरी दूर प्रिये । देखो इतना चलते चलते, हो गया हूँ थक के चूर प्रिये । अब इक पल न ठहरेगा, इस शहर में देखो पांव मेरा । इससे तो बहुत ही बेहतर था, छोटा सा प्यारा गांव मेरा । इस शहर को अपना समझा था, ये शहर हमारा कहां रहा। रहकर इस शहर में देख लिया, न जाने कितना कष्ट सहा । बस.. एक रोटी ही तो चुराई थी, सब कहकर पीटते चोर प्रिये । बस गांव अपने जाऊं पहुंच, फिर देखूंगा न इस ओर प्रिये । कवि:- ...